दुनिया में लड़कों के मुकाबले लड़कियां में ज्यादा होता है डिप्रेशन: स्‍टडी

इंग्‍लैंड का एक ताजा अध्‍ययन इस बात की ताकीद कर रहा है कि पूरी दुनिया में लड़कियां लड़कों के मुकाबले अवसाद, तनाव और डिप्रेशन की ज्‍यादा शिकार हो रही हैं. लेकिन इस तरह की साइंटिफिक स्‍टडी कोई नई नहीं है. आप गूगल पर गर्ल्‍स एंड मेंटल हेल्‍थ टाइप करिए और देखिए कि पूरी दुनिया में हुए कितने वैज्ञानिकों अध्‍ययनों और सर्वे के लिंक मिलते हैं.

हाल ही में इंग्लैंड के यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि स्कूल के दोस्तों और माता-पिता और परिवार के बीच अपनी एक आइडियल लड़की की छवि बनाने का दबाव लड़कियों पर लड़कों के मुकाबले बहुत ज्‍यादा है और ये दबाव उन्‍हें मानसिक रूप से बीमार कर रहा है. दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लड़कों और लड़कियों का अनुपात 26:74 का है यानि अवसाद और डिप्रेशन के शिकार हर सौ लोगों में से 26 लड़के और 74 लड़कियां हैं. ये फर्क न सिर्फ काफी बड़ा, बल्कि डरावना है.

एक्सेटर विश्वविद्यालय में प्रोफसर और इस स्‍टडी को लीड करने वाले डॉ लॉरेन स्टेंटिफ़ोर्ड कहते हैं कि इस स्‍टडी का टाइम काफी लंबा है, जिसमें पिछले 30 सालों में लड़कियों के जीवन में आए बदलावों और उनके मेंटल हेल्‍थ के ग्राफ को देखने की कोशिश की गई है. शोधकर्ताओं ने 1990 से लेकर 2021 तक लड़कियों की मेंटल हेल्‍थ कंडीशन पर प्रकाशित शोध पत्रों का विस्‍तार से अध्‍ययन किया. दुनिया भर के प्रमुख साइंस, साइकॉलजी और हेल्‍थ जरनलों में छपे ये सारे अध्ययन इस ओर इशारा कर रहे थे कि लड़कियां मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य की समस्‍या से ज्‍यादा जूझ रही हैं और इस ग्राफी पिछले तीन दशकों में लगातार बढ़ता गया है.

इसी महीने की शुरुआत में अमेरिका से एक ऐसा सर्वे आया, जो उस दिन दुनिया भर के अखबारों की हेडलाइन था. साल 2021 में अमेरिका में किशोर लड़कियों के सुसाइड रेट में 51 फीसदी का इजाफा हुआ है. वहीं किशोर लड़कों के सुसाइड रेट में 4 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया. ये फर्क इतना बड़ा और आंकड़ा इतने डरावना था कि अमेरिकी सरकार भी इससे आंखें नहीं मूंद सकती.

इंग्‍लैंड की ये स्‍टडी अकेली नहीं है. इंटरनेट पर ऐसे डेढ़ सौ से ज्‍यादा साइंटिफिक सर्वे और अध्‍ययन मौजूद हैं, जो इस बात की तस्‍दीक कर रहे हैं कि लड़कियों की मानसिक हालत ठीक नहीं है. समाज उन्‍हें लगातार आइसोलेट कर रहा है. परिवार और समाज की अपेक्षाओं का भार वो अकेले ढो रही हैं और बीमारियों की शिकार हो रही हैं.